भारत का सांस्कृतिक विकास: जरूरत आत्म-अन्वेषण की by Santosh Jha - HTML preview

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प्रस्तावना

हीं यह कोई किताब है, हीं मैं कोई लेखक! कहने को मैंने 24 ईबुक्स लिखी हैं अब तक, जो अंग्रेजी में हैं, मगर मैं उन्हें आपसब से बातचीत ही मानता हूं। क्यूं कि मूलतः मैं लेखक नहीं, बल्कि सहज-सरल इंसान हूं, जिसे गुफतगूं के सिलसिले के खुशनुमेंपन और सार्थकता-उपयोगिता पे भरोसा है। एक ऐसी ही मासूम सी गुफतगंू एक सिलसिला पाने की जिद ठाने बैठी थी, सो सोचा, चलिए, सब अपने ही तो हैं, कुछ कहा-सुना जाये तो खुशनुमेपन में शायद कुछ इजाफा ही हो। हिंदी में लिखने में एक अजीब सा अपनापन है। वैसे तो कुछ भी लिखने में थोड़ा डरता हूं क्यूं कि षब्दों द्वारा लेखन के माध्यम से भावाव्यक्ति की सार्थकता का मैं बहुत कायल नहीं। हालांकि, हिंदी मुझे आती नहीं, लेकिन इस भाषा में लिखने में वैसा डर नहीं लगता। वैसे तो अंग्रेजी भी कहां आती है! बात जो आपसब से कहनी है, उसके औचित्य और सार्थकता को लेकर दो राय होना लाजमी है। मेरी बस गुजारिश इतनी है कि आपसब इसे बेहद सहज-सरल-सुगम भाव चेतना से पढ़ें। मेरी खुशी इसमें है कि मैं यह सब आपसब से कह पा रहा हूं। आप अगर इसे उसी सहज भाव में पढ़ पायें, जिस सहज आत्मीयता के भाव से यह सब कहा गया है तो इस मासूम सी गुफतगूं की सार्थकता बन पायेगी। ऐसा होने पर स्वतः ही यहां कहे गये शब्द हमसब के आत्मचिंतन में स्थान पा सकेगा। यही आरजू है....

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शायद, कई साल हुए, शब्द अपनी मासूमियत खो बैठे हैं....

वैज्ञानिक सोच कहती है - हर व्यवस्था समय के साथ अव्यवस्थित होने लगती है। फिर, भाषा और शब्दों के माध्यम से जो अभिव्यक्ति-व्यवस्था है, उसको तो हमनें अपनी सुविधापरस्त सोच के हिसाब से इतना तोड़ा-मरोड़ा है कि शब्दों की वह पुरानी बालसुलभ खूबसूरती मासूम अल्हड़पन खत्म होती सी दिखती है।

अब आलम यह है, कि कुछ भी कहिये, कितने भी सहज-सरल भाव से उसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति कीजिये, लोगों में बेहद तीखी प्रतिक्रिया होती है। शायद, समाज में इतना अधिक तनाव, असुरक्षा एवं अविश्वास भर गया है और सहज-सरल व्यक्तिगत या व्यापक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी अब रातनीतिक सरोकारों से परे देखे जाने की परंपरा से महरुम हो चुकी है। ऐसे में कुछ ऐसा कहना जो एक व्यापक तथाकथित सुव्यवस्थित समाज, उसकी प्रचलित संस्कृति एवं उसमें जी रहे व्यक्ति को आइना दिखाने जैसा हो, तो उस कथन की मासूमियत की सार्थकता की हत्या तय है। और बात अगर यह कहनी हो कि अपने भारतीय समाज, या यूं कह लें कि बृहद मानवीय समाज काकल्चरल इवोल्यूशन’, सांस्कृतिक विकास, वैसा नहीं हो पाया जैसा शायद होना चाहिए था, या हो सकता था और जिसकी वजह से हीव्यापक पिछड़ापनएवं जीवन-संबंधी तमाम समस्याएं हैं, तथा आज इसे सुधारने, या यूं कह ले कि इसे पुनर्परिभाषित करने की बेहद जरूरत है, तब तो संभवतः अर्थ का अनर्थ समझने की जिद सी ठन जायेगी।

फिर यह भी है, इंसानी समाज की सभी अवधारणाओं की तरह हीकल्चरल इवोल्यूशनकी अवधारणा भी दुविधा, विवादों और बहस से घिरी है। मुश्किल तो यह सर्वदा से ही है कि मनुष्य की सभी अवधारणाओं को लेकर दुविधा एवं विवाद है और रहेगा ही इसलिए, प्रथमदृश्टया ऐसा लगता है कि किसी भी एक विचार को लेकर बहसबाजी और कलह की स्थिति से बचा नहीं जा सकता। मगर, हम यहां इससे बच निकलते हुए अपनी सहज-सरल बात कह सकने की जुगत में हैं। हमेंकल्चरल इवोल्यूशन’, यानि सांस्कृतिक विकास-क्रम के विभिन्न सिद्धांतों के विवाद में जाने की जरूरत ही नहीं है। मगर, कुछ मूल बात समझ लेने से शायद कुछ आसानी हो।

हम बस इतना करने की मासूम एवं ईमानदार कोशिश कर रहे हैं कि सांस्कृतिक विकास-क्रम की जो भी सोच सिद्धांत हैं, उनको कुछ अन्य वैचारिक पहलुओं को मानक मानते हुए इस पक्ष की ओर अपनी बातचीत को ले चलें कि हम भारतीयों के व्यापक समाज का कल्चरल इवोल्यूशन संभवतः सही नहीं हुआ है। यह भी कहना उचित है कि ऐसा विश्व के अन्य देषों के समाज के बारे में भी कहा जा सकता है।

ऐसा कहना कोई इल्जाम लगाने जैसा नहीं है। आप बस इतना समझ लीजे कि ऐसा एक हाइपोथेसिस, यानि परिकल्पना के तौर पर स्वीकार कर लेनें से उस पड़ताल को एनर्जी मिल जाती है कि आज जब हम सब लोग भारत और उसके बेहतर विकास और समृद्धि की बात कर रहे हैं, तो अगर भारतीय समाज के कल्चरल इवोल्यूशन की भी बातचीत हो जाये तो इससे भविष्य के विकास योजनाओं एवं तैयारियों को बल मिलेगा और रास्ते प्रशस्त होंगे। ऐसा मान कर ही हम कल्चरल इवोल्यूशन के सही होने के हाइपोथेसिस की पड़ताल करना चाह रहे हैं। यह पड़ताल आत्मचिंतन की वजह बन पाये, ऐसा सहज-सरल प्रयास है। यह पड़ताल बेहद जरूरी भी है, यह आगे संभवतः साबित भी हो सकेगी।

आमतौर पर, एक आम इंसान कल्चर एवं इवोल्यूशन जैसी गहन अवधारणाओं को लेकर ज्यादा सोचता नहीं है और उसे इनकी पापुलर या यूं कहें कि प्रचलित मान्याताओं को स्वीकारने के अलावा चारा भी नहीं होता। हम जब इस पड़ताल में बढ़ेंगे तो जरूरी हो जाता है कि पापुलर अवधारणाओं से परे भी जो सोच विचार हैं संस्कृति विकास-क्रम को लेकर, उन पर भी चर्चा करते चलें। पहला और आखिरी उद्देष्य ही है इस पड़ताल का कि हम सब हर मसले और मुद्दे को पूर्णता, व्यापकता होलिज्ममें देख सकें।

तो पहले पापुलर और प्रचलित अवधारणाओं को लेकर ही बातचीत हो। आम